हाईकोर्ट ने कहा : तालाब, चकरोड व नाली पर अतिक्रमण आपराधिक मामला नहीं, राजस्व संहिता के तहत करें कार्रवाई

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि तालाब, चकरोड और नाली पर अतिक्रमण इस प्रकृति का नहीं है, जिस पर आपराधिक वाद चलाया जाए। यह राजस्व से जुड़ा मामला है। इसमें राजस्व संहिता की धारा 67 के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए। धारा 67 के तहत कार्रवाई पूरी होने के बाद अतिक्रमणकारियों पर जुर्माना लगाया जा सकता है। भूमि का सीमांकन कराया जा सकता है। यह आदेश न्यायमूर्ति राहुल चतुर्वेदी ने शामली के साजिद व आठ अन्य और कन्नौज के प्रभाकांत व अन्य की याचिका को स्वीकार करते हुए दिया

कोर्ट ने अपने इस आदेश के साथ कन्नौज के तिरवा थाने में 20 जून 2016 को प्रभाकांत व अन्य और शामली के कैराना थाने में 27 जुलाई 2018 को साजिद व आठ अन्य के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी सहित पूरी आपराधिक प्रक्रिया को रद्द कर दिया

शामली के साजिद और आठ अन्य के खिलाफ कैराना थाने में दर्ज प्राथमिकी में आरोप लगाया गया उन्होंने खाता संख्या 176 पर गुजरने वाली नाली और 177 पर गुजरने वाले चक रोड पर कब्जा कर लिया है। याचियों के खिलाफ लेखपाल बालेश्वर दास ने सार्वजनिक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम के तहत 11 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई गई।

जांच अधिकारी ने सतही तौर पर जांच कर याचियों का कब्जा दिखाया और प्रधान के बयान के आधार पर आरोप पत्र दाखिल कर दिए। अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने आरोप पत्र का संज्ञान लेते हुए समन जारी कर दिया। जबकि, इसी मामले में लेखपाल की रिपोर्ट के आधार पर सिविल अदालत (सीनियर डिवीजन) ने भी याचियों को समन जारी कर रखा है। याचियों ने इन दोनों तरह के समन के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

कोर्ट ने सुनवाई के दौरान पाया कि याचियों की कृषि भूमि सार्वजनिक भूमि से जुड़ी हुई है। इसका सीमांकन नहीं कराया गया। जांच अधिकारी ने सीमांकन कराए बिना ही प्रधान के बयानों के आधार पर आरोपी बना दिया। कोर्ट ने कहा कि यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि खेतों एवं चक रोड का सीमांकन करने वाली सीमाएं धुंधली हो गई होंगी तथा इसकी पहचान सुनिश्चित नहीं की जा सकती।

कन्नौज के याची प्रभाकांत व अन्य पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने तालाब की भूमि पर कब्जा कर लिया है। कोर्ट ने अपने आदेश में लिखा है कि आरोप पत्र दाखिल होने के बाद संबंधित मजिस्ट्रेट ने अपने संज्ञान आदेश में अभियुक्तों का नाम तक नहीं लिया है और उन्हें आपराधिक मुकदमे का सामना करने के लिए नहीं कहा है। आवेदक के वकील ने तर्क दिया कि संबंधित मजिस्ट्रेट ने न्यायिक विवेक का इस्तेमाल नहीं किया। उसने अपने संज्ञान आदेश में आरोपी व्यक्तियों का नाम तक नहीं लिया है। कोर्ट ने न्यायिक प्रक्रिया को गलत मानते हुए प्राथमिकी सहित समन आदेश को रद्द कर दिया और चार महीने में इस आदेश के क्रम में नए सिरे से विचार करने को कहा है।

 

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